पुणे का चिंचवड़ रेलवे स्टेशन उस रात बिल्कुल सुनसान हो चुका था। मुंबई–पुणे एक्सप्रेस तीन घंटे लेट थी और इंतज़ार करते–करते यात्री या तो किसी दूसरी ट्रेन से निकल चुके थे या फिर स्टेशन छोड़कर जा चुके थे।
अब वहाँ बस एक ही व्यक्ति बचा था — जतिन।
थका हुआ जतिन बुदबुदाया,
“लगता है अब मैं अकेला ही हूँ… ट्रेन आएगी तो इसी से निकल जाऊँगा।”
ठंडी हवा और खाली प्लेटफ़ॉर्म उसे बेचैन कर रहे थे। तभी फुट-ओवर ब्रिज की सीढ़ियों के पास सो रहे कुछ भिखारियों में से एक उठकर उसके पास आया।
वह झुका और रहस्यमयी आवाज़ में बोला,
“इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हो? इस ट्रेन में रात को सफ़र मत करना… किसी अंजान से बात मत करना।”
उसकी टेढ़ी मुस्कान और अजीब चेतावनी ने जतिन को असहज कर दिया। वह कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही प्लेटफ़ॉर्म पर तेज़ हॉर्न गूंजा—
ट्रेन आ चुकी थी।
अजीब सफर की शुरुआत
पूरे प्लेटफ़ॉर्म से जतिन ही अकेला यात्री था जो ट्रेन में चढ़ा। भागते हुए वह किसी तरह ट्रेन के आखिरी कोच में पहुँचा। दरवाजे से झाँककर उसने देखा—वही भिखारी अभी भी मुस्कुरा रहा था… एक रहस्यमयी, असामान्य मुस्कान।
अजीब बेचैनी के साथ जतिन अंदर गया और सामने खाली पड़ी सीट पर बैठ गया। खिड़की से आती ठंडी हवा उसकी थकान दूर कर रही थी। तभी उसे लगा कि कोई उसके बिल्कुल पास तेज़-तेज़ साँसें ले रहा है।
उसने झट से आँखें खोलीं—
कोई नहीं था।
पूरा डिब्बा खाली था, मानो इस ट्रेन में कभी भी कोई आता–जाता ही नहीं। डर बढ़ने लगा।
उसी समय उसने देखा—दूसरी तरफ की सीट पर एक आदमी बैठा था।
नीली शर्ट, शांत चेहरा… पर आँखों में अजीब सा सूना पन।
जतिन उसके पास जाकर बैठ गया।
वह आदमी बस उसे घूरे जा रहा था—एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ।
“कोई स्टेशन नहीं आएगा…”
काफी देर से ट्रेन चल रही थी, पर कोई स्टेशन नहीं आया था। बाहरी अंधेरा ऐसा लग रहा था जैसे ट्रेन किसी और ही दुनिया से गुजर रही हो।
अचानक वह आदमी बोला,
“क्या सोच रहे हो? कि स्टेशन क्यों नहीं आया?”
जतिन चौंक गया।
वह तो मन ही मन यही सोच रहा था।
वह आदमी आगे बोला,
“कोई स्टेशन आएगा ही नहीं। तुम गलत ट्रेन में चढ़ गए हो।”
जतिन का डर गहरा होने लगा।
वह खड़ा हुआ और इधर–उधर देखने लगा। ट्रेन का हर कोच खाली था। आगे जाने का रास्ता भी बंद था। जब वह वापस लौटा, तो आदमी की शक्ल देखकर उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई—
उसके सिर से खून बह रहा था… आँखें बाहर निकली हुई… चेहरा फटा हुआ।
जतिन चीखता हुआ पीछे हट गया।
इसी बीच, वह आदमी अचानक सामान्य रूप में बदल गया।
शांत… मानो कुछ हुआ ही नहीं।
“मैं इस ट्रेन में मरा था…”
धीरे से उसने कहा,
“वो खून… वो बरसों पहले की चोट है। बीस साल पहले मैं भी इसी ट्रेन से सफर कर रहा था…”
फिर उसने अपनी कहानी बताई—
ट्रेन लेट थी। स्टेशन खाली था।
कुछ शराबी उसी के पीछे ट्रेन में चढ़ गए।
जगह खाली थी, फिर भी वे उससे उलझ पड़े।
बहस में उन्होंने उसे चलती ट्रेन से धक्का दे दिया।
उसका सिर लोहे के खंभे से टकराया, और अगले ही पल दूसरी ट्रेन उसके ऊपर से गुजर गई।
वह वहीं मर गया।
“तब से मैं इस ट्रेन में घूम रहा हूँ। उन्हीं लोगों को ढूँढ रहा हूँ। कभी नहीं मिलते… कभी नहीं।”
उसकी आवाज़ में गहरी निराशा थी।
जतिन ने कंपकपाते हुए कहा,
“अगर आप मर चुके हैं… तो फिर आप… भ…”
वह व्यक्ति चिल्लाया,
“मुझे मज़ाक पसंद नहीं! मैं जानता हूँ मैं क्या हूँ!”
स्टेशन अब भी नहीं आ रहा था। ट्रेन जैसे किसी अनजान अंधेरे में भाग रही थी।
अंतिम प्रस्ताव
अचानक वह व्यक्ति फिर से अपने भयानक रूप में बदल गया।
खून टपकता, आँखें बाहर निकली हुई, शरीर फटा हुआ।
जतिन ने चेन खींचने की कोशिश की,
लेकिन चेन खींचते ही ट्रेन और तेज़ दौड़ने लगी।
जतिन नीचे गिर पड़ा और वह प्रेत उसके बिल्कुल सामने आ खड़ा हुआ।
“क्यों डर रहे हो? कुछ नहीं बिगाड़ा तुमने मेरा,”
उसकी आवाज़ गहरी, ठंडी और खतरनाक थी।
“अगर मदद कर सकते हो… तो मुझे मुक्ति दिला दो।”
जतिन हकलाया,
“मैं… मैं आपको मुक्ति कैसे दूँ?”
प्रेत धीरे से बोला,
“ये ट्रेन उस रात से अब तक चल रही है… जब मेरी मौत हुई थी।
यह कभी नहीं रुकती।
यहाँ से कोई बाहर नहीं निकलता…
सिवाय तुम्हारे।”
जतिन की साँस रुक गई।
“तुम आखिरी यात्री हो जो इस ट्रेन से बाहर जा सकता है…
बस तुम्हें मेरी जगह लेनी होगी।”
जतिन सुन्न रह गया।
“या तो तुम मुझे मुक्त करो और खुद इस ट्रेन का हिस्सा बन जाओ…
या अगली मंज़िल से पहले तुम्हारी कहानी भी खत्म हो जाएगी।”
जतिन का अंत
अब उसके सामने दो ही रास्ते थे—
मरना…
या किसी और की मौत का इंतज़ार करने वाला अगला भूत बनना।
घबराहट में उसने खिड़की के बाहर देखा—
सिर्फ काला अंधेरा।
ना स्टेशन, ना कोई रोशनी।
धीरे-धीरे वह उस प्रेत के सामने गया और बोला,
“ठीक है… मैं तुम्हें मुक्त करूँगा।”
जैसे ही उसने ये कहा—
ट्रेन अचानक रुक गई।
डिब्बे में ठंडी हवा भर गई।
वह प्रेत मुस्कुराया… और धीरे-धीरे हवा में घुलने लगा।
उसकी अंतिम आवाज़ गूंजी—
“अब तुम इस ट्रेन के नए यात्री हो।
मुक्ति तुम्हारी भी आएगी… जब कोई और यहाँ चढ़ेगा।”
ट्रेन के दरवाज़े खुल गए।
जतिन अकेला खड़ा था।
अब वह जान चुका था—वह इस ट्रेन से कभी नहीं निकल पाएगा।
ट्रेन फिर चल पड़ी।
अगले स्टेशन पर…
किसी नए यात्री का इंतज़ार हो रहा था।
एक और आत्मा…
जो किसी और की मुक्ति की कीमत चुकाएगी।
